शनिवार, 11 सितंबर 2010

बेटियां



लो मां
हम फिर अव्वल आयीं हैं
तुम्हारे लाडले
वंशधरों को पीछे छोड़ते हुए.
यहीं रुकेंगे नहीं हमारे कदम
अब हम
अन्तरिक्ष में कुलांचें भरेंगी
धरती को
बांहों में समेट लेंगी
क़ैद कर लेंगी
आंधियों को सांसों में
समन्दरों का खारापन हर
घोल देंगी मिठास
इस लोक में.

क्या तब भी
तुम नहीं मुस्कराओगी?
या फिर
यही दुआ करोगी कि काश
इस जगह मेरा बेटा होता?
ऐसी क्यों हो मां तुम
क्या भूल गयी
कि
जब घर के चिराग
बाहर कहीं
कन्दुक क्रीड़ा में लीन होते हैं
हम ही होतीं हैं आस-पास
तुम्हारे दुखों की हमसफ़र
संवारतीं हैं घर
बढ़ाती हैं स्वाद परिवार में
रिश्तों को रफ़ू करती हैं
भरती हैं मुस्कानें
तुम्हारी उदासियों में
पिता की फटकार खा
जब तुम किसी एकान्त कोने में
अपना दुख उलीचती हो
हमारी आंखों से
झरते हैं आंसू
हम रात-दिन
तुम्हारे ही साथ खटती हैं
शादी के बाद भी
हमारी आस्थाएं
ससुराल में कम
पीहर में ज्यादा बंटती हैं.

मगर;
जब हमारे कत्ल की साज़िशें चलती हैं
तुम पिता का साथ देती हो
और
भ्रूण में ही हो जाते हैं खण्ड-खण्ड
तमाम स्वप्न
हमारी अजन्मी बहनों के;
वे भी अगर
धरती पर उतरतीं
तो छू लेतीं आसमान
समन्दरों का खारापन हर
घोल देतीं मिठास
इस लोक में