गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

मामूली चीजों का देवता

आज का कवि
लिख लेता है
मामूली चीज़ों पर
गैर मामूली कविता.
मसलन वह
उपले थेपती
उस मरियल सी सांवली युवती को
कविता की नायिका बनाता है
जिसकी आंखों में अभी अभी
एक दृश्य बिंध गया है
कि
खुशबू के झोंके की भांति
ब्युटीपार्लर से निकल
एकमेमगुज़री है सामने से
कोहनी-कोहनी तक
मेंहदी सजाये;
युवती
उपले पाथना भूल
अनजाने
उसी गोबर से मांडने लगती है लकीरें
कोहनी-कोहनी तक
खोयी- खोयी सी
है मामूली बात.

कवि
उस नन्हीं सी लड़की को भी
शब्द चित्र में बांध लेता है
जो
उतनी ही नन्हीं साइकिल पर
लगा रही है एड़
दम भरकर
पसीना-पसीन,
लड़के आगे निकल गये हैं उससे
वह
लड़कों से आगे निकलना चाहती है
है मामूली बात!

कवि
उस लड़के को भी नहीं भूल पाता
जिसकी उम्र पढ़ने की है
मगर
पिता ने सौंप दी है जिम्मेदारी
ज़िन्दगी से लड़ने की
वह चाय बेचता है
और
ग्राहकों को खुश रखने के लिए
तरह-तरह की आवाज़ें निकालता है
कौए की,मोर की,शेर की,फोन घंटी की
लोग
चुस्कियाँ लेते हुए हँसते हैं
कवि हँस नहीं पाता
कविता लिखताहै.

प्राय: ऎसा भी होता है
कि
दुनिया-जहान में भटक कर
कवि जब
शाम को घर पहुँचता है
पत्नी की आँखों में
भीण्डी टमाटर बैंगन की तरह
असंख्य प्रश्न उगे दिखाई देते हैं
वह खिसियाकर
एक रोमांटिक सी कविता गुनगुनाता है
और
किचन की तरफ़ मचलती पत्नी को
बाँहों में भरने की
निष्फल चेष्टा करता है
न जाने क्यों
अचानक उसका गला भर्रा जाता है
मानो
शोक गीत सुना रहा हो;
जो कवि लिख लेता है
मामूली चीज़ों पर ग़ैर मामूली कविता
इस दॄश्य को
लाख कोशिश के बावज़ूद
शब्दों में नहीं ढाल पाता
जैसे यह कोई
ग़ैर ममूली बात हो
लेखनी से परे
शब्दों के पार.


नोट:यह कविता शिवरामजी ने अभिव्यक्ति के अप्रेल २०१० अंक में प्रकाशित की थी.हुआ यूं कि मैं किसी काम से फरवरी माह में कोटा गया था.वहीं भाई चांद शेरी के माध्यम से सर्वश्री महेन्द्र नेह, शकूर अनवर ,अखिलेश अंजुम,शिवराम प्रभृति सहित्यकार जिस होटल में मैं ठहरा हुआ था वहाँ पधारे थे.शिवरामजी ने मुझे देखते ही गले से लगा लिया हलांकि हम पहली बार ही मिल रहे थे.वैसे हम एक दूसरे को बरसों से जानते थे. वे मेरी कहानियों के मुरीद थे और मैं उनके जनवादी तेवर वाले नाटकों का . परन्तु वे इतने अच्छे इंसान हैं ,इतने आत्मीय इसका मुझे पहली बार एहसास हुआ.काश मैं उनसे कुछ और पहले मिला होता!सबने कुछ न कुछ सुनाया.कोटा के साहित्यकार मित्रों का वह मिलन छोटी-मोटी गोष्ठी में बदल गया.जब मैने उक्त कविता सुनायी तो शिवरामजी ने बड़े प्रेम से इसे अभिव्यक्ति के ताजा अंक के लिये रख लिया.विदा लेते हुए फिर से वे बहुत आत्मीयता से मिले .उस समय मुझे क्या पता था कि यह उनसे मेरी पहली और अन्तिम मुलाकात है.उनमे दुनिया को बेहतर बनाने की अकूत विकलता थी और इसके लिये वे सक्रिय रूप से जु्टे हुए थे.तमाम खतरे उठाकर भी.