रविवार, 18 दिसंबर 2011

सिरफिरा जनगणना अधिकारी

सभी उसे गलबा कहते हैं
जन्मा होता अगर हवेली में
तो आदर से पुकारते गुलाब,
पसीना गुलाब की तरह महकता
हवेली की मजबूत दीवारें
बचाये रखतीं उसे
लू,वर्षा,तूफान और ऐसे ही
मौसम के तमाम सदमों से;
जनगणना अधिकारी पूछता
गांव का वी.आई.पी कौन है
लोग अदब से जवाब देते
गुलाबजी ठाकुरसा

ऊंचे सपने देखने वालों की बात ही कुछ और है
गलबा नहीं देखता है सपने
वह दूसरों के सपनों को ढोता है
लादे हुए है सूरज को पीठ पर
कुचल रहा है
जेठ की तपिश को पैरों तले
मसल रहा है पौष की शीत
अपनी खुरदरी हथेलियों के बीच
पसीने में बहा रहा है
दुनिया का मैल
झेल रहा है मूसलाधार बरसात
लू के थपेड़ों को थप्पड़ मार रहा है;
दूसरों के लिए
वह सब कर रहा है
जो अपने लिए सोच भी नहीं सकता

तेरे बिन गलबा
एक पत्थर तक न हिले इस गांव का
न उगे सुन्दर दीवारें
धरती को फोड़कर,
दीवाली पर घर न चमके
समारोह में जाना रुक जाय कुलीनों का
अगर तू रातों को सो जाय,
बच्चे दूध बिन बिलबिलाएं
जो
मरखने ढोर डांगर को
तू चारा न खिलाए

गलबा
तू ही सच्चा वी.आई.पी. है
चलो
जनगणना का श्रीगणेश
तुम्हीं से करते हैं
कहता है सिरफिरा जनगणना अधिकारी

बुधवार, 14 सितंबर 2011

शिक्षा का केन्द्रीयकरण

आज शिक्षा का जिस प्रकार केन्द्रीयकरण किया जा रहा है वह निश्चित ही चिंता का विषय है| वस्तुतः शिक्षा संविधान के अनुसार राज्यों का विषय है परंतु राज्यों ने केन्द्र के सम्मुख घुटने टेक दिये हैं| परिणाम यह हुआ है कि स्कूली पाठ्यक्रमों में से स्थानीयता गायब हो गई है| हिंदी विषयों से किसी अवांछित की तरह प्रान्तीय साहित्यकारों को बाहर धकेल दिया गया है,भाषा में अब स्थानीयता के रंग नहीं रहे हैं| विज्ञान विषयों में पाठ का प्रस्तुतीकरण नितांत अमनोवैज्ञानिक ,जटिल, ऊबाउ तथा ग्रामीण क्षेत्र से आने वाले छात्रों के मानसिक स्तर के प्रतिकूल है कारण कि इसे ऊपर से थोपा गया है न कि स्थानीय विज्ञान लेखकों द्वारा लिखा गया है|जनसत्ता के चार सितंबर के अंक में प्रकाशित कविता ‘शिक्षा का अधिकार’ में रमेश दवे इसी बात को बड़े ही सशक्त तरीके से कहा है|

किताबों में छपी भाषा

में, नहीं

एक भी शब्द मेरी मातृभाषा का

इसलिए पढ़ूंगी नहीं किताब!

किताबों में छपे

गणित के सवालों में

नहीं मेरे घर के

रोटी,पानी,ईंधन का

कोई हिसाब

इसलिये

पढ़ूंगी नहीं गणित की

किताब!

नहीं है किताब में

मेरे घर के आस-पास उगे

नीम,बबूल,खेजड़े और अकौवे के पेड़

न मेरी छोटी सी खुस्सी नदी

न मेरे आसपास मंडराते

जानवर,पंछी,तितली,ततैया

न छप्पर टपकते

टूटे-फूटे कवेलूदार मकान

न खेत में लहराते

मेरे पसीने के दाने

इसलिये पढ़ूंगी नहीं

पोथी पर्यावरण की!


मंगलवार, 6 सितंबर 2011

वारिस



बच्चा जब बढ़ता है
पिता
अपने व्यक्तित्व को पुनः गढ़ता है
बच्चे का किलकना कूदना
लगता है उसे
अपना किलकना कूदना
बच्चे का खतरों से खेलना
भर देता है
उसके अन्तस का रिक्त कोना

नन्हा बच्चा
पेड़ पर चढ़ता है
भयभीत मां
पुकारती है पति को
रोको
वह गिर जाएगा
नीचे नुकीले पत्थर हैं
पिता देखता है
उसकी आंखों में चमक दौड़ जाती है
पत्नी के कंधे पर हाथ रख
हौले से कहता है
प्रिय,उसे चढ़ने दो
जो काम हम नहीं कर पाये
उसे करने दो
जो गिरने से डरेगा
वह
ऊपर कैसे उठेगा ?

बुधवार, 8 जून 2011

विकलांग

लंगड़ा भिखारी बैसाखी के सहारे चलता हुआ भीख मांग रहा था। "तेरी बेटी सुख में पड़ेगी।अहमदाबाद का माल खायेगी,मुम्बई की हुन्डी चुकेगी।दे दे सेठ, लंगड़े को
रुपये दो रुपये।"
उसने एक साइकिल की दुकान पर जाकर गुहार लगाई।सेठ कुर्सी पर बैठा-बैठा रजिस्टर में किसी का नाम लिख रहा था।उसने सिर उठाकर भिखारी की तरफ देखा।
"अरे,तू तो अभी जवान और ह्ट्टा-कट्टा है।भीख मांगते शर्म नहीं आती?कमाई किया कर।"
भिखारी ने अपने को अपमानित महसूस किया।स्वर में तल्खी भर कर बोला,","सेठ,तू भाग्यशाली है।पूरब जनम में तूने अच्छे करम किये हैं।भगवान ने मेरी एक टाँग न छीन ली होती तो मैं भी आज तेरी तरह कुर्सी पर बैठा राज करता।"
सेठ ने इस मुँहफट भिखारी को ज्यादा मुँह लगाना ठीक नहीं समझा।वह गुल्लक में भीख लायक परचूनी ढूँढने लगा।भिखारी आगे बढ़ा।
"ये ले, लेजा।"
भिखारी हाथ फैलाकर नजदीक गया। परन्तु एकाएक हाथ वापस खींच लिया,मानो सामने सिक्के की बजाय जलता हुआ अंगारा हो।कुर्सी पर बैठकर ‘राज करने वाले’ की दोनों टाँगें घुटनों तक गायब थीं।
-------------------------------
नोट:मेरी यह लघुकथा सर्वप्रथम कथालोक के मई १९८५ अंक में छपी थी।बाद में काफी चर्चित हुई।हाल ही में एक भावपूर्ण वीडिओ क्लिप देखकर सुप्रसिद्ध लघुकथाकार और समालोचक बलराम अग्रवाल ने फ़ेसबुक पर इसकी चर्चा की है।अतः सुधि पाठकों के लिये प्रस्तुत की जा रही है।