गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012
माजना
रविवार, 18 दिसंबर 2011
सिरफिरा जनगणना अधिकारी
जन्मा होता अगर हवेली में
तो आदर से पुकारते गुलाब,
पसीना गुलाब की तरह महकता
हवेली की मजबूत दीवारें
बचाये रखतीं उसे
लू,वर्षा,तूफान और ऐसे ही
मौसम के तमाम सदमों से;
जनगणना अधिकारी पूछता
गांव का वी.आई.पी कौन है
लोग अदब से जवाब देते
गुलाबजी ठाकुरसा
ऊंचे सपने देखने वालों की बात ही कुछ और है
गलबा नहीं देखता है सपने
वह दूसरों के सपनों को ढोता है
लादे हुए है सूरज को पीठ पर
कुचल रहा है
जेठ की तपिश को पैरों तले
मसल रहा है पौष की शीत
अपनी खुरदरी हथेलियों के बीच
पसीने में बहा रहा है
दुनिया का मैल
झेल रहा है मूसलाधार बरसात
लू के थपेड़ों को थप्पड़ मार रहा है;
दूसरों के लिए
वह सब कर रहा है
जो अपने लिए सोच भी नहीं सकता
तेरे बिन गलबा
एक पत्थर तक न हिले इस गांव का
न उगे सुन्दर दीवारें
धरती को फोड़कर,
दीवाली पर घर न चमके
समारोह में जाना रुक जाय कुलीनों का
अगर तू रातों को सो जाय,
बच्चे दूध बिन बिलबिलाएं
जो
मरखने ढोर डांगर को
तू चारा न खिलाए
गलबा
तू ही सच्चा वी.आई.पी. है
चलो
जनगणना का श्रीगणेश
तुम्हीं से करते हैं
कहता है सिरफिरा जनगणना अधिकारी
बुधवार, 14 सितंबर 2011
शिक्षा का केन्द्रीयकरण
आज शिक्षा का जिस प्रकार केन्द्रीयकरण किया जा रहा है वह निश्चित ही चिंता का विषय है| वस्तुतः शिक्षा संविधान के अनुसार राज्यों का विषय है परंतु राज्यों ने केन्द्र के सम्मुख घुटने टेक दिये हैं| परिणाम यह हुआ है कि स्कूली पाठ्यक्रमों में से स्थानीयता गायब हो गई है| हिंदी विषयों से किसी अवांछित की तरह प्रान्तीय साहित्यकारों को बाहर धकेल दिया गया है,भाषा में अब स्थानीयता के रंग नहीं रहे हैं| विज्ञान विषयों में पाठ का प्रस्तुतीकरण नितांत अमनोवैज्ञानिक ,जटिल, ऊबाउ तथा ग्रामीण क्षेत्र से आने वाले छात्रों के मानसिक स्तर के प्रतिकूल है कारण कि इसे ऊपर से थोपा गया है न कि स्थानीय विज्ञान लेखकों द्वारा लिखा गया है|जनसत्ता के चार सितंबर के अंक में प्रकाशित कविता ‘शिक्षा का अधिकार’ में रमेश दवे इसी बात को बड़े ही सशक्त तरीके से कहा है|
किताबों में छपी भाषा
में, नहीं
एक भी शब्द मेरी मातृभाषा का
इसलिए पढ़ूंगी नहीं किताब!
किताबों में छपे
गणित के सवालों में
नहीं मेरे घर के
रोटी,पानी,ईंधन का
कोई हिसाब
इसलिये
पढ़ूंगी नहीं गणित की
किताब!
नहीं है किताब में
मेरे घर के आस-पास उगे
नीम,बबूल,खेजड़े और अकौवे के पेड़
न मेरी छोटी सी खुस्सी नदी
न मेरे आसपास मंडराते
जानवर,पंछी,तितली,ततैया
न छप्पर टपकते
टूटे-फूटे कवेलूदार मकान
न खेत में लहराते
मेरे पसीने के दाने
इसलिये पढ़ूंगी नहीं
पोथी पर्यावरण की!
मंगलवार, 6 सितंबर 2011
वारिस
बच्चा जब बढ़ता है
पिता
अपने व्यक्तित्व को पुनः गढ़ता है
बच्चे का किलकना कूदना
लगता है उसे
अपना किलकना कूदना
बच्चे का खतरों से खेलना
भर देता है
उसके अन्तस का रिक्त कोना
नन्हा बच्चा
पेड़ पर चढ़ता है
भयभीत मां
पुकारती है पति को
रोको
वह गिर जाएगा
नीचे नुकीले पत्थर हैं
पिता देखता है
उसकी आंखों में चमक दौड़ जाती है
पत्नी के कंधे पर हाथ रख
हौले से कहता है
प्रिय,उसे चढ़ने दो
जो काम हम नहीं कर पाये
उसे करने दो
जो गिरने से डरेगा
वह
ऊपर कैसे उठेगा ?
बुधवार, 8 जून 2011
विकलांग
रुपये दो रुपये।"
उसने एक साइकिल की दुकान पर जाकर गुहार लगाई।सेठ कुर्सी पर बैठा-बैठा रजिस्टर में किसी का नाम लिख रहा था।उसने सिर उठाकर भिखारी की तरफ देखा।
"अरे,तू तो अभी जवान और ह्ट्टा-कट्टा है।भीख मांगते शर्म नहीं आती?कमाई किया कर।"
भिखारी ने अपने को अपमानित महसूस किया।स्वर में तल्खी भर कर बोला,","सेठ,तू भाग्यशाली है।पूरब जनम में तूने अच्छे करम किये हैं।भगवान ने मेरी एक टाँग न छीन ली होती तो मैं भी आज तेरी तरह कुर्सी पर बैठा राज करता।"
सेठ ने इस मुँहफट भिखारी को ज्यादा मुँह लगाना ठीक नहीं समझा।वह गुल्लक में भीख लायक परचूनी ढूँढने लगा।भिखारी आगे बढ़ा।
"ये ले, लेजा।"
भिखारी हाथ फैलाकर नजदीक गया। परन्तु एकाएक हाथ वापस खींच लिया,मानो सामने सिक्के की बजाय जलता हुआ अंगारा हो।कुर्सी पर बैठकर ‘राज करने वाले’ की दोनों टाँगें घुटनों तक गायब थीं।
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नोट:मेरी यह लघुकथा सर्वप्रथम कथालोक के मई १९८५ अंक में छपी थी।बाद में काफी चर्चित हुई।हाल ही में एक भावपूर्ण वीडिओ क्लिप देखकर सुप्रसिद्ध लघुकथाकार और समालोचक बलराम अग्रवाल ने फ़ेसबुक पर इसकी चर्चा की है।अतः सुधि पाठकों के लिये प्रस्तुत की जा रही है।
शनिवार, 11 दिसंबर 2010
अपना-अपना आकाश
कमरे में गोष्ठी चल रही थी.विषय था बच्चे. बच्चों का भविष्य सुखमय कैसे हो?कैसे उनके कंधों से किताबों का बेशुमार बोझ कम किया जाय? वगैरह-वगैरह.शहर के कुछ विचारवान लोगों ने इसका आयोजन किया था.कमरा कफ़ी बड़ा था, सो एक तराफ बच्चों ने अड्डा जमा लिया था.तरह-तरह के खेल.खेल-खेल में झगड़ा.झगड़े की परिणति दोस्ती में.फिर से नये-नये खेल.हुड़दंग.खिलखिलाहटें.शोर.वक्ताओं के विचार-सूत्र उलझने लगे.
"बच्चो,जाओ भागो.ऊपर जाकर खेलो."
गृह्स्वामी ने एक-एक बच्चे को थामकर कमरे से बाहर कर दिया.ऊपर की मंजिल पर उनकी मम्मियाँ गोष्ठी समापन के इंतज़ार में गप्पें लड़ा रही थीं.
गोष्ठी परवान पर थी कि बच्चे वापस आ धमके.थोड़ी देर तो प्रबुद्धजन बच्चों को बर्दाश्त करते रहे,किन्तु जब उनकी धमाचौकड़ी हद से ज्यादा बढ़ गई तो गृह्स्वामी एक बार पुनः उनसे मुखातिब हुए,"बच्चों,हल्ला मत करो.देखते नहीं,हम तुम्हारे ही भले की बात सोच रहे हैं; तुम सब की खुशहाली की बातें.अच्छे बच्चों की तरह चुपचाप ऊपर चले जाओ.शाबाश."
"नीचे आते हैं तो कहते हैं ऊपर जाओ.ऊपर जाते हैं तो कहते हैं कि नीचे जाओ"पिंकी ने खड़े होकर इस तरह कहा जैसे कविता सुना रही हो. उसकी बात सुनकर सारे बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े मानो किसी बगीचे में सैंकड़ों कलियाँ एक साथ चटख गयी हों, और फिर खेलने में मशगूल हो गये.गृहस्वामी ने लाचारी से अपने मेहमानों की ओर देखा.
"धबीको सालों को.लातों के देव बातों से नहीं मानेंगे."गोष्ठी के अध्यक्ष भीमशंकरजी ने व्यव्स्था दी.
अभिभावकगण उठे और अपनी-अपनी संतान को पहचान कर कान उमेठते हुए बाहर कर दिया.साथ ही दरवाजा बंद कर,अंदर से सिटकनी भी लगा दी.खैर अब तो गोष्ठी को निर्बाध संपन्न होना ही था,सो हुई.महिला-मंडल भी ऊब कर नीचे आ गया.लेकिन बच्चे?उनका पता नहीं चल रहा था.महिलाओं ने कहा कि हमने तो उन्हें आपके पास भेजा था.प्रबुद्धजनों का कहना था कि हमने उन्हें ऊपर भेजा था.थोड़ी नोंक-झोंक,आरोप-प्रत्यारोप कि सारे दिन गप्पें लड़ाते रहते हैं,बच्चे भी संभालने में नहीं आते.इसके बाद सभी निकल पड़े बच्चों को ढूंढने.बेचैन निगाहें.धड़कते दिल.कहाँ गायब हो गये सब?कहीं कोई अपहरण करके तो नहीं ले गया?जमाना कितना खराब चल रहा है.
अचानक शर्माजी चिल्लाए,"वे रहे उधर."
सभी उधर दौड़े.
"बच्चों यहाँ क्या कर रहे हो?इस खण्डहर में?"वर्मा जी ने पूछा.
"अंकल,हम घर-घर खेल रहे हैं.ये देखो, ये बड़ा सा घर मैने बनाया है.ये घर बंटी का है और ये पिंकी का और ये...."बबली एक-एक कर घरों के बारे में बताने लगी.बच्चों ने ईंट,पत्थर,लकड़ियों के टुकड़े,टूटे काँच,फूल,पत्तियाँ और कागज जमाकर बहुत खूबसूरत नन्हें-नन्हें से घर बनाये थे.सबके चेहरे खिले-खिले.सृजन सुख से दैदीप्यमान.
"ये हमारे घर हैं.यहाँ हम खूब खेलेंगे.हमें यहाँ से कोई नहीं निकाल सकता" बबली बोली. बबली की बात पर तमाम बच्चे तालियाँ पीट-पीट कर नाचने लगे.
गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010
मामूली चीजों का देवता
लिख लेता है
मामूली चीज़ों पर
गैर मामूली कविता.
मसलन वह
उपले थेपती
उस मरियल सी सांवली युवती को
कविता की नायिका बनाता है
जिसकी आंखों में अभी अभी
एक दृश्य बिंध गया है
कि
खुशबू के झोंके की भांति
ब्युटीपार्लर से निकल
एक ‘मेम‘ गुज़री है सामने से
कोहनी-कोहनी तक
मेंहदी सजाये;
युवती
उपले पाथना भूल
अनजाने
उसी गोबर से मांडने लगती है लकीरें
कोहनी-कोहनी तक
खोयी- खोयी सी
है न मामूली बात.
कवि
उस नन्हीं सी लड़की को भी
शब्द चित्र में बांध लेता है
जो
उतनी ही नन्हीं साइकिल पर
लगा रही है एड़
दम भरकर
पसीना-पसीन,
लड़के आगे निकल गये हैं उससे
वह
लड़कों से आगे निकलना चाहती है
है न मामूली बात!
कवि
उस लड़के को भी नहीं भूल पाता
जिसकी उम्र पढ़ने की है
मगर
पिता ने सौंप दी है जिम्मेदारी
ज़िन्दगी से लड़ने की
वह चाय बेचता है
और
ग्राहकों को खुश रखने के लिए
तरह-तरह की आवाज़ें निकालता है
कौए की,मोर की,शेर की,फोन घंटी की
लोग
चुस्कियाँ लेते हुए हँसते हैं
कवि हँस नहीं पाता
कविता लिखताहै.
प्राय: ऎसा भी होता है
कि
दुनिया-जहान में भटक कर
कवि जब
शाम को घर पहुँचता है
पत्नी की आँखों में
भीण्डी टमाटर बैंगन की तरह
असंख्य प्रश्न उगे दिखाई देते हैं
वह खिसियाकर
एक रोमांटिक सी कविता गुनगुनाता है
और
किचन की तरफ़ मचलती पत्नी को
बाँहों में भरने की
निष्फल चेष्टा करता है
न जाने क्यों
अचानक उसका गला भर्रा जाता है
मानो
शोक गीत सुना रहा हो;
जो कवि लिख लेता है
मामूली चीज़ों पर ग़ैर मामूली कविता
इस दॄश्य को
लाख कोशिश के बावज़ूद
शब्दों में नहीं ढाल पाता
जैसे यह कोई
ग़ैर ममूली बात हो
लेखनी से परे
शब्दों के पार.
नोट:यह कविता शिवरामजी ने अभिव्यक्ति के अप्रेल २०१० अंक में प्रकाशित की थी.हुआ यूं कि मैं किसी काम से फरवरी माह में कोटा गया था.वहीं भाई चांद शेरी के माध्यम से सर्वश्री महेन्द्र नेह, शकूर अनवर ,अखिलेश अंजुम,शिवराम प्रभृति सहित्यकार जिस होटल में मैं ठहरा हुआ था वहाँ पधारे थे.शिवरामजी ने मुझे देखते ही गले से लगा लिया हलांकि हम पहली बार ही मिल रहे थे.वैसे हम एक दूसरे को बरसों से जानते थे. वे मेरी कहानियों के मुरीद थे और मैं उनके जनवादी तेवर वाले नाटकों का . परन्तु वे इतने अच्छे इंसान हैं ,इतने आत्मीय इसका मुझे पहली बार एहसास हुआ.काश मैं उनसे कुछ और पहले मिला होता!सबने कुछ न कुछ सुनाया.कोटा के साहित्यकार मित्रों का वह मिलन छोटी-मोटी गोष्ठी में बदल गया.जब मैने उक्त कविता सुनायी तो शिवरामजी ने बड़े प्रेम से इसे अभिव्यक्ति के ताजा अंक के लिये रख लिया.विदा लेते हुए फिर से वे बहुत आत्मीयता से मिले .उस समय मुझे क्या पता था कि यह उनसे मेरी पहली और अन्तिम मुलाकात है.उनमे दुनिया को बेहतर बनाने की अकूत विकलता थी और इसके लिये वे सक्रिय रूप से जु्टे हुए थे.तमाम खतरे उठाकर भी.