शुक्रवार, 28 मई 2010

बचा रहे आपस का प्रेम

एक विचार अमूर्त सा
कौंधता है भीतर
कसमसाता है बीज की तरह
हौले हौले
अपना सिर उठाती है कविता
जैसे
फूट रहा हो कोई अंखुआ


धरती को भेद कर;
तना बनेगा
शाखें निकलेंगी
पत्तियां प्रकटेंगी
एक दिन भरा-पूरा
हरा-भरा
पेड.बनेगी कविता ।

कविता पेड. ही तो है
इस झुलसाने वाले समय में
कविता सें इतर
छांव कहां
सुकून कहां
यहीं तो मिल बैठ सकते हैं
सब साथ-साथ
चल पडने को फिर से
तरो ताजा हो कर ।

लकडहारों को
नहीं सुहाती है कविता
नहीं सुहाता है उन्हें
लोगों का मिलना जुलना
प्रेम से बोलना बतियाना
भयभीत करती है उन्हें
कविता के पत्तों की
खडखडाहट
इसीलिये तो वे घूम रहे हैं

हाथ में कुठारी लिये
हिंसक शब्दों के हत्थे वाली ।
हमें
बचाना है कविता को
क्रूर लकडहारों से
ताकि लोग
बैठ सकें बेधडक
इसकी छांव में
ताकि बचा रहे
आपस का प्रेम

सोमवार, 24 मई 2010

अनुगूंज



समय की रेत के नीचे
कहीं गहरे
तुम्हारी यादों की
अन्तर्धारा बह रही है
रेगिस्तान मे सरस्वती की तरह


अन्तस की उपत्यकाओं में
बहुत दूर
तैर रही है
मधुर अनुगूंज
जैसे
लौट लौट आता हो
पहाडों से टकरा कर
तुम्हारे नाम का अनहद नाद


उम्र के इस पडाव पर
हैरान हूं ;
पहाड़ वीरान नहीं हुए हैं
शाख से टूटे फूलों मे
खुशबू शेष है
कबाडी की नजरों से बच गये
शेखर "एक जीवनी" मे
दम साधे दुबकी हुई है
एक प्यारी सी चिट्ठी


वक्त की बेरहम आंधी
सब कुछ उडा सकती है
मगर प्रेम नहीं