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समय की रेत के नीचे
कहीं गहरे
तुम्हारी यादों की
अन्तर्धारा बह रही है
रेगिस्तान मे सरस्वती की तरह
अन्तस की उपत्यकाओं में
बहुत दूर
तैर रही है
मधुर अनुगूंज
जैसे
लौट लौट आता हो
पहाडों से टकरा कर
तुम्हारे नाम का अनहद नाद
उम्र के इस पडाव पर
हैरान हूं ;
पहाड़ वीरान नहीं हुए हैं
शाख से टूटे फूलों मे
खुशबू शेष है
कबाडी की नजरों से बच गये
शेखर "एक जीवनी" मे
दम साधे दुबकी हुई है
एक प्यारी सी चिट्ठी
वक्त की बेरहम आंधी
सब कुछ उडा सकती है
मगर प्रेम नहीं
3 टिप्पणियां:
पहाड़ वीरान नहीं हुए हैं
शाख से टूटे फूलों मे
खुशबू शेष है
बहुत उम्दा बात कही है आपने. सूखे फूलों में भी सुवास होती है. यादें जो मरने के बाद भी रह जाती है.
बेहतरीन रचा है, बधाई.
sahi kaha prem to amar hai...
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