आज शिक्षा का जिस प्रकार केन्द्रीयकरण किया जा रहा है वह निश्चित ही चिंता का विषय है| वस्तुतः शिक्षा संविधान के अनुसार राज्यों का विषय है परंतु राज्यों ने केन्द्र के सम्मुख घुटने टेक दिये हैं| परिणाम यह हुआ है कि स्कूली पाठ्यक्रमों में से स्थानीयता गायब हो गई है| हिंदी विषयों से किसी अवांछित की तरह प्रान्तीय साहित्यकारों को बाहर धकेल दिया गया है,भाषा में अब स्थानीयता के रंग नहीं रहे हैं| विज्ञान विषयों में पाठ का प्रस्तुतीकरण नितांत अमनोवैज्ञानिक ,जटिल, ऊबाउ तथा ग्रामीण क्षेत्र से आने वाले छात्रों के मानसिक स्तर के प्रतिकूल है कारण कि इसे ऊपर से थोपा गया है न कि स्थानीय विज्ञान लेखकों द्वारा लिखा गया है|जनसत्ता के चार सितंबर के अंक में प्रकाशित कविता ‘शिक्षा का अधिकार’ में रमेश दवे इसी बात को बड़े ही सशक्त तरीके से कहा है|
किताबों में छपी भाषा
में, नहीं
एक भी शब्द मेरी मातृभाषा का
इसलिए पढ़ूंगी नहीं किताब!
किताबों में छपे
गणित के सवालों में
नहीं मेरे घर के
रोटी,पानी,ईंधन का
कोई हिसाब
इसलिये
पढ़ूंगी नहीं गणित की
किताब!
नहीं है किताब में
मेरे घर के आस-पास उगे
नीम,बबूल,खेजड़े और अकौवे के पेड़
न मेरी छोटी सी खुस्सी नदी
न मेरे आसपास मंडराते
जानवर,पंछी,तितली,ततैया
न छप्पर टपकते
टूटे-फूटे कवेलूदार मकान
न खेत में लहराते
मेरे पसीने के दाने
इसलिये पढ़ूंगी नहीं
पोथी पर्यावरण की!
1 टिप्पणी:
एक जरूरी मुद्दे को बेहतरीन कविता के माध्यम से उठाया है आपने.
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