शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

संत वाणी

पांडाल खचाखच भर चुका है.अलग-अलग ब्लोक.हर ब्लोक में एक टीवी ताकि संत छवि को समीप से निहारा जा सके.संत दूर व्यास पीठ पर विराजमान हैं.प्रवचन चल रहा है.
एक अधेड़ा हांफ़ती-कांपती आती है और ऎन टीवी के सामने हाथ जोड़ बैठ जाती है.
"मीठा बोलो.दूसरों के लिये और कुछ न कर सको तो मीठा बोलो."संत के श्रीमुख से मानो फूल झर रहे हैं.
अधेड़ा के कारण संत की छवि छिप जाती है.पीछे बैठा दर्शक श्रोता चिल्लाता है,"मां जी, यहां टीवी के सामने मत बैठो.उधर जाओ. हटो यहां से."
रोचक प्रसंग छूटा जा रहा था.महिला टस से मस नहीं हुई.
"डोकरी सुना नहीं क्या?हट यहां से."
"हट कर कहां जाऊं?तुम्ही जगह बता दो."
"जगह चाहिये तो जल्दी मरा करो ना."
उधर पांडाल में संत वाणी गूंज रही थी,"और कुछ कर सको तो मीठा बोलो.मीठी वाणी अमृत तुल्य होती है."

3 टिप्‍पणियां:

Dr. Vimla Bhandari ने कहा…

Nice

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सीख देती अच्छी लघु कथा ..

उमेश महादोषी ने कहा…

यही हो रहा है। आजकल शिक्षाएं सिर्फ सुनने भर के लिए होती हैं, गोया कोई स्टेटस सिम्बल हों। एक अच्छी लघुकथा है।