बुधवार, 8 जून 2011

विकलांग

लंगड़ा भिखारी बैसाखी के सहारे चलता हुआ भीख मांग रहा था। "तेरी बेटी सुख में पड़ेगी।अहमदाबाद का माल खायेगी,मुम्बई की हुन्डी चुकेगी।दे दे सेठ, लंगड़े को
रुपये दो रुपये।"
उसने एक साइकिल की दुकान पर जाकर गुहार लगाई।सेठ कुर्सी पर बैठा-बैठा रजिस्टर में किसी का नाम लिख रहा था।उसने सिर उठाकर भिखारी की तरफ देखा।
"अरे,तू तो अभी जवान और ह्ट्टा-कट्टा है।भीख मांगते शर्म नहीं आती?कमाई किया कर।"
भिखारी ने अपने को अपमानित महसूस किया।स्वर में तल्खी भर कर बोला,","सेठ,तू भाग्यशाली है।पूरब जनम में तूने अच्छे करम किये हैं।भगवान ने मेरी एक टाँग न छीन ली होती तो मैं भी आज तेरी तरह कुर्सी पर बैठा राज करता।"
सेठ ने इस मुँहफट भिखारी को ज्यादा मुँह लगाना ठीक नहीं समझा।वह गुल्लक में भीख लायक परचूनी ढूँढने लगा।भिखारी आगे बढ़ा।
"ये ले, लेजा।"
भिखारी हाथ फैलाकर नजदीक गया। परन्तु एकाएक हाथ वापस खींच लिया,मानो सामने सिक्के की बजाय जलता हुआ अंगारा हो।कुर्सी पर बैठकर ‘राज करने वाले’ की दोनों टाँगें घुटनों तक गायब थीं।
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नोट:मेरी यह लघुकथा सर्वप्रथम कथालोक के मई १९८५ अंक में छपी थी।बाद में काफी चर्चित हुई।हाल ही में एक भावपूर्ण वीडिओ क्लिप देखकर सुप्रसिद्ध लघुकथाकार और समालोचक बलराम अग्रवाल ने फ़ेसबुक पर इसकी चर्चा की है।अतः सुधि पाठकों के लिये प्रस्तुत की जा रही है।

3 टिप्‍पणियां:

Pramod Chamoli ने कहा…

नागदा साहब नायब लघुकथा के लिए शुक्रिया | दिल को छु गई |

madhav ने कहा…

धन्यवाद प्रमोदजी ,अपने ब्लोग के माध्यम से आप भी बहुत काम कर रहे हैं|

उमेश महादोषी ने कहा…

हर तरह से पूर्ण लघुकथा है. आपका लेखन तो है ही, बलराम अग्रवाल जी भी हीरे चुन-चुन कर सामने रखते हैं.