शनिवार, 11 सितंबर 2010
बेटियां
लो मां
हम फिर अव्वल आयीं हैं
तुम्हारे लाडले
वंशधरों को पीछे छोड़ते हुए.
यहीं रुकेंगे नहीं हमारे कदम
अब हम
अन्तरिक्ष में कुलांचें भरेंगी
धरती को
बांहों में समेट लेंगी
क़ैद कर लेंगी
आंधियों को सांसों में
समन्दरों का खारापन हर
घोल देंगी मिठास
इस लोक में.
क्या तब भी
तुम नहीं मुस्कराओगी?
या फिर
यही दुआ करोगी कि काश
इस जगह मेरा बेटा होता?
ऐसी क्यों हो मां तुम
क्या भूल गयी
कि
जब घर के चिराग
बाहर कहीं
कन्दुक क्रीड़ा में लीन होते हैं
हम ही होतीं हैं आस-पास
तुम्हारे दुखों की हमसफ़र
संवारतीं हैं घर
बढ़ाती हैं स्वाद परिवार में
रिश्तों को रफ़ू करती हैं
भरती हैं मुस्कानें
तुम्हारी उदासियों में
पिता की फटकार खा
जब तुम किसी एकान्त कोने में
अपना दुख उलीचती हो
हमारी आंखों से
झरते हैं आंसू
हम रात-दिन
तुम्हारे ही साथ खटती हैं
शादी के बाद भी
हमारी आस्थाएं
ससुराल में कम
पीहर में ज्यादा बंटती हैं.
मगर;
जब हमारे कत्ल की साज़िशें चलती हैं
तुम पिता का साथ देती हो
और
भ्रूण में ही हो जाते हैं खण्ड-खण्ड
तमाम स्वप्न
हमारी अजन्मी बहनों के;
वे भी अगर
धरती पर उतरतीं
तो छू लेतीं आसमान
समन्दरों का खारापन हर
घोल देतीं मिठास
इस लोक में
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14 टिप्पणियां:
Very impressive and meaningful poem sir ji........
Congrats....
दिल की गहराई से लिखी गयी एक सुंदर रचना , बधाई
वीरेन्द्र जी और सुनील जी,आपको कविता पसन्द आयी, आभारी हूं.
माधव जी ,
यह कविता नहीं है ..यह है सच्चाई जो शब्द ले कर आपके कलम से फूटी है ...कितनी मार्मिक और सटीक रचना है ..बहुत सुन्दर भाव और उससे ज्यादा प्रश्न पूछती बेटियां ...सुन्दर रचना पढवाने का आभार
dhanyavad,sangeetaji
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 14 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
आज का कड्वा सच्………………सच है मगर कोई अपनाने को तैयार नही और उसे आपने शब्दों मे पिरो दिया……………काश इस बात को सब समझ पाते।
परम श्रद्धेय माधव तुल्य
श्री माधव नागदा जी
प्रणाम !
बहुत प्रभावशाली है आपकी यह रचना !
अंतःस्थल की गहराई तक असर किया है , बेटियां आपकी लेखनी के माध्यम से जितना कुछ कह गईं हैं …
" हम ही होतीं हैं आस-पास
तुम्हारे दुखों की हमसफ़र
संवारतीं हैं घर ,
बढ़ाती हैं स्वाद परिवार में ,
रिश्तों को रफ़ू करती हैं ,
भरती हैं मुस्कानें तुम्हारी उदासियों में
पिता की फटकार खा'
जब तुम किसी एकान्त कोने में
अपना दुख उलीचती हो
हमारी आंखों से झरते हैं आंसू ,
हम रात-दिन तुम्हारे ही साथ खटती हैं … "
काश! आपकी दृष्टि से देखा होता हर किसी ने !
आपके हृदय जैसे पावन भाव होते प्रत्येक हृदय में !!
इस रचना के लिए
बधाई - धन्यवाद जैसे शब्द अपर्याप्त , अक्षम , असमर्थ हैं ।
नमन है आपको , और आपकी लेखनी को !
सादर …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
प्रिय राजेन्द्रजी, कविता से भी अधिक प्रभावशाली आपकी टिप्पणी है.अभिभूत हूं.इसी तरह प्रेम बनाए रखें.वन्दनाजी, आभारी हूं.मेरे ब्लोग पर अन्य रचनाएं पढ़ कर अपनी अमूल्य सम्मति से अवगत करावें.
इस बिषय पर काफी रचनाएँ लिखी जा रही हैं। पर आपका भावों को सूत्र में पिरोने और कविता में प्रश्न उठाने का सलीका रचना के प्रभाव को तो बढाता है, रचना को एक अलग जगह पर खड़ा करता है।
............................
"पिता की फटकार खा
जब तुम किसी एकान्त कोने में
अपना दुख उलीचती हो
हमारी आंखों से
झरते हैं आंसू
हम रात-दिन
तुम्हारे ही साथ खटती हैं"
......................
"मगर;
जब हमारे कत्ल की साज़िशें चलती हैं
तुम पिता का साथ देती हो"
...... यह प्रश्न अभी भी सिर्फ खड़ा ही नहीं है, बल्कि कुछ दूसरी सामाजिक समस्याओं से जुड़कर विकराल ही हुआ है। इस प्रश्न का उत्तर तो माताओं को खोजना ही होगा, तमाम मर्यादाओं, उलझनों और बन्धनों के बीच भी।
अब हम
अन्तरिक्ष में कुलांचें भरेंगी
धरती को
बांहों में समेट लेंगी
क़ैद कर लेंगी
आंधियों को सांसों में
समन्दरों का खारापन हर
घोल देंगी मिठास
इस लोक में.
दिल की गहराई से लिखी गयी एक सुंदर कविता
आदरणीय माधव जी
प्रणाम !
आपकी नई रचना की प्रतीक्षा कर रहा हूं
सादर
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
Nagda ji
Namaskar
wakai betio ne bahut kuch kar dikhya he waqt ki mang yahi he ki ab mansikta badlni chahiye. sunder bhavpurn abhivyaki se rubru karvane ke lie dhanyawad
भगीरथजी,प्रमोदजी साहित्य सुगंध पर आपका स्वागत है.व्यस्तता के चलते बहुत दिनों बाद नेट पर बैठा हूं.राजेन्द्रजी कोशिश करूंगा कि शीघ्र ही कोई रचना प्र्स्तुत करूं.उमेशजी सहित आप सभी मित्रों का आभार.
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