मंगलवार, 6 सितंबर 2011

वारिस



बच्चा जब बढ़ता है
पिता
अपने व्यक्तित्व को पुनः गढ़ता है
बच्चे का किलकना कूदना
लगता है उसे
अपना किलकना कूदना
बच्चे का खतरों से खेलना
भर देता है
उसके अन्तस का रिक्त कोना

नन्हा बच्चा
पेड़ पर चढ़ता है
भयभीत मां
पुकारती है पति को
रोको
वह गिर जाएगा
नीचे नुकीले पत्थर हैं
पिता देखता है
उसकी आंखों में चमक दौड़ जाती है
पत्नी के कंधे पर हाथ रख
हौले से कहता है
प्रिय,उसे चढ़ने दो
जो काम हम नहीं कर पाये
उसे करने दो
जो गिरने से डरेगा
वह
ऊपर कैसे उठेगा ?

3 टिप्‍पणियां:

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…





आदरणीय माधव नागदा जी
सादर प्रणाम !

आशा है , सपरिवार स्वस्थ-सानन्द हैं …
बहुत समय बाद आपकी नई रचना पढ़ कर बहुत अच्छा लगा ।

सच है हम अपने बच्चों में अपने अतीत को अनुभव करते हुए विगत की अपनी विफलताओं को सफलता में तब्दील होते देखना चाहते हैं …

सुंदर कविता का श्रेष्ठ समापन …
जो काम हम नहीं कर पाये
उसे करने दो
जो गिरने से डरेगा
वह
ऊपर कैसे उठेगा ?


आभार !

कृपया , अंतर्जाल पर भी अपनों की सुध लेते रहें …
स्वास्थ्य का ध्यान रखें …

आपको सपरिवार
बीते हुए हर पर्व-त्यौंहार सहित
आने वाले सभी उत्सवों-मंगलदिवसों के लिए
हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार

madhav ने कहा…

प्रिय राजेन्द्रजी,आपकी आत्मीयता का प्रसाद मुझे सदैव मिलता आया है,इतना अपनापन पाकर अभिभूत हूँ|आपको अन्तर्जाल पर मैं प्रायः पढ़ता रहता हूँ| इस तरह आपको डूब कर काम करते देख बहुत अच्छा लगता है|बधाई एवं शुभकामनाएं|

उमेश महादोषी ने कहा…

कविता भाव पूर्ण तो है ही, चिंतन पूर्ण भी है. भविष्य की ओर देखना है तो बच्चों पर नियंत्रण नहीं, उन्हें मार्गदर्शनपूर्ण हौसला देने की जरूरत है. और इसी में माँ-बाप आनंद भी लें.