एक विचार अमूर्त सा
कौंधता है भीतर
कसमसाता है बीज की तरह
हौले हौले
अपना सिर उठाती है कविता
जैसे
फूट रहा हो कोई अंखुआ
कौंधता है भीतर
कसमसाता है बीज की तरह
हौले हौले
अपना सिर उठाती है कविता
जैसे
फूट रहा हो कोई अंखुआ
धरती को भेद कर;
तना बनेगा
शाखें निकलेंगी
पत्तियां प्रकटेंगी
एक दिन भरा-पूरा
हरा-भरा
पेड.बनेगी कविता ।
कविता पेड. ही तो है
इस झुलसाने वाले समय में
कविता सें इतर
छांव कहां
सुकून कहां
यहीं तो मिल बैठ सकते हैं
सब साथ-साथ
चल पडने को फिर से
तरो ताजा हो कर ।
लकडहारों को
नहीं सुहाती है कविता
नहीं सुहाता है उन्हें
लोगों का मिलना जुलना
प्रेम से बोलना बतियाना
भयभीत करती है उन्हें
कविता के पत्तों की
खडखडाहट
इसीलिये तो वे घूम रहे हैं
हाथ में कुठारी लिये
हिंसक शब्दों के हत्थे वाली ।
हमें
बचाना है कविता को
क्रूर लकडहारों से
ताकि लोग
बैठ सकें बेधडक
इसकी छांव में
ताकि बचा रहे
आपस का प्रेम
तना बनेगा
शाखें निकलेंगी
पत्तियां प्रकटेंगी
एक दिन भरा-पूरा
हरा-भरा
पेड.बनेगी कविता ।
कविता पेड. ही तो है
इस झुलसाने वाले समय में
कविता सें इतर
छांव कहां
सुकून कहां
यहीं तो मिल बैठ सकते हैं
सब साथ-साथ
चल पडने को फिर से
तरो ताजा हो कर ।
लकडहारों को
नहीं सुहाती है कविता
नहीं सुहाता है उन्हें
लोगों का मिलना जुलना
प्रेम से बोलना बतियाना
भयभीत करती है उन्हें
कविता के पत्तों की
खडखडाहट
इसीलिये तो वे घूम रहे हैं
हाथ में कुठारी लिये
हिंसक शब्दों के हत्थे वाली ।
हमें
बचाना है कविता को
क्रूर लकडहारों से
ताकि लोग
बैठ सकें बेधडक
इसकी छांव में
ताकि बचा रहे
आपस का प्रेम
1 टिप्पणी:
बहुत खूब ....
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