शनिवार, 11 दिसंबर 2010

अपना-अपना आकाश


कमरे में गोष्ठी चल रही थी.विषय था बच्चे. बच्चों का भविष्य सुखमय कैसे हो?कैसे उनके कंधों से किताबों का बेशुमार बोझ कम किया जाय? वगैरह-वगैरह.शहर के कुछ विचारवान लोगों ने इसका आयोजन किया था.कमरा कफ़ी बड़ा था, सो एक तराफ बच्चों ने अड्डा जमा लिया था.तरह-तरह के खेल.खेल-खेल में झगड़ा.झगड़े की परिणति दोस्ती में.फिर से नये-नये खेल.हुड़दंग.खिलखिलाहटें.शोर.वक्ताओं के विचार-सूत्र उलझने लगे.
"बच्चो,जाओ भागो.ऊपर जाकर खेलो."
गृह्स्वामी ने एक-एक बच्चे को थामकर कमरे से बाहर कर दिया.ऊपर की मंजिल पर उनकी मम्मियाँ गोष्ठी समापन के इंतज़ार में गप्पें लड़ा रही थीं.
गोष्ठी परवान पर थी कि बच्चे वापस आ धमके.थोड़ी देर तो प्रबुद्धजन बच्चों को बर्दाश्त करते रहे,किन्तु जब उनकी धमाचौकड़ी हद से ज्यादा बढ़ गई तो गृह्स्वामी एक बार पुनः उनसे मुखातिब हुए,"बच्चों,हल्ला मत करो.देखते नहीं,हम तुम्हारे ही भले की बात सोच रहे हैं; तुम सब की खुशहाली की बातें.अच्छे बच्चों की तरह चुपचाप ऊपर चले जाओ.शाबाश."
"नीचे आते हैं तो कहते हैं ऊपर जाओ.ऊपर जाते हैं तो कहते हैं कि नीचे जाओ"पिंकी ने खड़े होकर इस तरह कहा जैसे कविता सुना रही हो. उसकी बात सुनकर सारे बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े मानो किसी बगीचे में सैंकड़ों कलियाँ एक साथ चटख गयी हों, और फिर खेलने में मशगूल हो गये.गृहस्वामी ने लाचारी से अपने मेहमानों की ओर देखा.
"धबीको सालों को.लातों के देव बातों से नहीं मानेंगे."गोष्ठी के अध्यक्ष भीमशंकरजी ने व्यव्स्था दी.
अभिभावकगण उठे और अपनी-अपनी संतान को पहचान कर कान उमेठते हुए बाहर कर दिया.साथ ही दरवाजा बंद कर,अंदर से सिटकनी भी लगा दी.खैर अब तो गोष्ठी को निर्बाध संपन्न होना ही था,सो हुई.महिला-मंडल भी ऊब कर नीचे आ गया.लेकिन बच्चे?उनका पता नहीं चल रहा था.महिलाओं ने कहा कि हमने तो उन्हें आपके पास भेजा था.प्रबुद्धजनों का कहना था कि हमने उन्हें ऊपर भेजा था.थोड़ी नोंक-झोंक,आरोप-प्रत्यारोप कि सारे दिन गप्पें लड़ाते रहते हैं,बच्चे भी संभालने में नहीं आते.इसके बाद सभी निकल पड़े बच्चों को ढूंढने.बेचैन निगाहें.धड़कते दिल.कहाँ गायब हो गये सब?कहीं कोई अपहरण करके तो नहीं ले गया?जमाना कितना खराब चल रहा है.
अचानक शर्माजी चिल्लाए,"वे रहे उधर."
सभी उधर दौड़े.
"बच्चों यहाँ क्या कर रहे हो?इस खण्डहर में?"वर्मा जी ने पूछा.
"अंकल,हम घर-घर खेल रहे हैं.ये देखो, ये बड़ा सा घर मैने बनाया है.ये घर बंटी का है और ये पिंकी का और ये...."बबली एक-एक कर घरों के बारे में बताने लगी.बच्चों ने ईंट,पत्थर,लकड़ियों के टुकड़े,टूटे काँच,फूल,पत्तियाँ और कागज जमाकर बहुत खूबसूरत नन्हें-नन्हें से घर बनाये थे.सबके चेहरे खिले-खिले.सृजन सुख से दैदीप्यमान.
"ये हमारे घर हैं.यहाँ हम खूब खेलेंगे.हमें यहाँ से कोई नहीं निकाल सकता" बबली बोली. बबली की बात पर तमाम बच्चे तालियाँ पीट-पीट कर नाचने लगे.

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

मामूली चीजों का देवता

आज का कवि
लिख लेता है
मामूली चीज़ों पर
गैर मामूली कविता.
मसलन वह
उपले थेपती
उस मरियल सी सांवली युवती को
कविता की नायिका बनाता है
जिसकी आंखों में अभी अभी
एक दृश्य बिंध गया है
कि
खुशबू के झोंके की भांति
ब्युटीपार्लर से निकल
एकमेमगुज़री है सामने से
कोहनी-कोहनी तक
मेंहदी सजाये;
युवती
उपले पाथना भूल
अनजाने
उसी गोबर से मांडने लगती है लकीरें
कोहनी-कोहनी तक
खोयी- खोयी सी
है मामूली बात.

कवि
उस नन्हीं सी लड़की को भी
शब्द चित्र में बांध लेता है
जो
उतनी ही नन्हीं साइकिल पर
लगा रही है एड़
दम भरकर
पसीना-पसीन,
लड़के आगे निकल गये हैं उससे
वह
लड़कों से आगे निकलना चाहती है
है मामूली बात!

कवि
उस लड़के को भी नहीं भूल पाता
जिसकी उम्र पढ़ने की है
मगर
पिता ने सौंप दी है जिम्मेदारी
ज़िन्दगी से लड़ने की
वह चाय बेचता है
और
ग्राहकों को खुश रखने के लिए
तरह-तरह की आवाज़ें निकालता है
कौए की,मोर की,शेर की,फोन घंटी की
लोग
चुस्कियाँ लेते हुए हँसते हैं
कवि हँस नहीं पाता
कविता लिखताहै.

प्राय: ऎसा भी होता है
कि
दुनिया-जहान में भटक कर
कवि जब
शाम को घर पहुँचता है
पत्नी की आँखों में
भीण्डी टमाटर बैंगन की तरह
असंख्य प्रश्न उगे दिखाई देते हैं
वह खिसियाकर
एक रोमांटिक सी कविता गुनगुनाता है
और
किचन की तरफ़ मचलती पत्नी को
बाँहों में भरने की
निष्फल चेष्टा करता है
न जाने क्यों
अचानक उसका गला भर्रा जाता है
मानो
शोक गीत सुना रहा हो;
जो कवि लिख लेता है
मामूली चीज़ों पर ग़ैर मामूली कविता
इस दॄश्य को
लाख कोशिश के बावज़ूद
शब्दों में नहीं ढाल पाता
जैसे यह कोई
ग़ैर ममूली बात हो
लेखनी से परे
शब्दों के पार.


नोट:यह कविता शिवरामजी ने अभिव्यक्ति के अप्रेल २०१० अंक में प्रकाशित की थी.हुआ यूं कि मैं किसी काम से फरवरी माह में कोटा गया था.वहीं भाई चांद शेरी के माध्यम से सर्वश्री महेन्द्र नेह, शकूर अनवर ,अखिलेश अंजुम,शिवराम प्रभृति सहित्यकार जिस होटल में मैं ठहरा हुआ था वहाँ पधारे थे.शिवरामजी ने मुझे देखते ही गले से लगा लिया हलांकि हम पहली बार ही मिल रहे थे.वैसे हम एक दूसरे को बरसों से जानते थे. वे मेरी कहानियों के मुरीद थे और मैं उनके जनवादी तेवर वाले नाटकों का . परन्तु वे इतने अच्छे इंसान हैं ,इतने आत्मीय इसका मुझे पहली बार एहसास हुआ.काश मैं उनसे कुछ और पहले मिला होता!सबने कुछ न कुछ सुनाया.कोटा के साहित्यकार मित्रों का वह मिलन छोटी-मोटी गोष्ठी में बदल गया.जब मैने उक्त कविता सुनायी तो शिवरामजी ने बड़े प्रेम से इसे अभिव्यक्ति के ताजा अंक के लिये रख लिया.विदा लेते हुए फिर से वे बहुत आत्मीयता से मिले .उस समय मुझे क्या पता था कि यह उनसे मेरी पहली और अन्तिम मुलाकात है.उनमे दुनिया को बेहतर बनाने की अकूत विकलता थी और इसके लिये वे सक्रिय रूप से जु्टे हुए थे.तमाम खतरे उठाकर भी.

शनिवार, 11 सितंबर 2010

बेटियां



लो मां
हम फिर अव्वल आयीं हैं
तुम्हारे लाडले
वंशधरों को पीछे छोड़ते हुए.
यहीं रुकेंगे नहीं हमारे कदम
अब हम
अन्तरिक्ष में कुलांचें भरेंगी
धरती को
बांहों में समेट लेंगी
क़ैद कर लेंगी
आंधियों को सांसों में
समन्दरों का खारापन हर
घोल देंगी मिठास
इस लोक में.

क्या तब भी
तुम नहीं मुस्कराओगी?
या फिर
यही दुआ करोगी कि काश
इस जगह मेरा बेटा होता?
ऐसी क्यों हो मां तुम
क्या भूल गयी
कि
जब घर के चिराग
बाहर कहीं
कन्दुक क्रीड़ा में लीन होते हैं
हम ही होतीं हैं आस-पास
तुम्हारे दुखों की हमसफ़र
संवारतीं हैं घर
बढ़ाती हैं स्वाद परिवार में
रिश्तों को रफ़ू करती हैं
भरती हैं मुस्कानें
तुम्हारी उदासियों में
पिता की फटकार खा
जब तुम किसी एकान्त कोने में
अपना दुख उलीचती हो
हमारी आंखों से
झरते हैं आंसू
हम रात-दिन
तुम्हारे ही साथ खटती हैं
शादी के बाद भी
हमारी आस्थाएं
ससुराल में कम
पीहर में ज्यादा बंटती हैं.

मगर;
जब हमारे कत्ल की साज़िशें चलती हैं
तुम पिता का साथ देती हो
और
भ्रूण में ही हो जाते हैं खण्ड-खण्ड
तमाम स्वप्न
हमारी अजन्मी बहनों के;
वे भी अगर
धरती पर उतरतीं
तो छू लेतीं आसमान
समन्दरों का खारापन हर
घोल देतीं मिठास
इस लोक में

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

संत वाणी

पांडाल खचाखच भर चुका है.अलग-अलग ब्लोक.हर ब्लोक में एक टीवी ताकि संत छवि को समीप से निहारा जा सके.संत दूर व्यास पीठ पर विराजमान हैं.प्रवचन चल रहा है.
एक अधेड़ा हांफ़ती-कांपती आती है और ऎन टीवी के सामने हाथ जोड़ बैठ जाती है.
"मीठा बोलो.दूसरों के लिये और कुछ न कर सको तो मीठा बोलो."संत के श्रीमुख से मानो फूल झर रहे हैं.
अधेड़ा के कारण संत की छवि छिप जाती है.पीछे बैठा दर्शक श्रोता चिल्लाता है,"मां जी, यहां टीवी के सामने मत बैठो.उधर जाओ. हटो यहां से."
रोचक प्रसंग छूटा जा रहा था.महिला टस से मस नहीं हुई.
"डोकरी सुना नहीं क्या?हट यहां से."
"हट कर कहां जाऊं?तुम्ही जगह बता दो."
"जगह चाहिये तो जल्दी मरा करो ना."
उधर पांडाल में संत वाणी गूंज रही थी,"और कुछ कर सको तो मीठा बोलो.मीठी वाणी अमृत तुल्य होती है."

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

बदलते सन्दर्भ :कुछ शब्द चित्र

बदलते सन्दर्भ:कुछ शब्द चित्र
(1)
विदेह
भ्रूण पर हल चला
कर रहें हैं
अजन्मी सीता की
देह का हरण.
ले ली है सुषेणों ने
सोने की लंका में शरण
(2)
संजय
सुना रहे हैं अनवरत
अश्लीलता का
आंखों देखा हाल
मुदित हैं ध्रृतराष्ट्र.
(3)
सन्दीपनी शिष्य सुदामा
निकल पड़े हैं
उगाहने चंदा
कांख मे दबी
प्राप्ति पुस्तिका देखते ही
मित्रवर कृष्ण
उड़का देते हैं किंवाड़.
(4)
ज्यों ही
नीलआर्मस्ट्रांग ने
रखा चांद पर
पहला कदम अपना
पूरा हुआ
रावण का अधूरा सपना.
(5)
टहलते देख अन्तरिक्ष मे.
सुनीता विलियम्स को
महाराज सत्यव्रत त्रिशंकु हुए प्रसन्न
विश्वामित्र की तरह कोई
आज भी है अडिग
देवराज के विरुद्ध.





शनिवार, 17 जुलाई 2010

भक्त


दोनों भक्त मंदिर प्रांगण में खड़े थे.पहला कुछ देर तक मंदिर की भव्यता और मूर्ति की सौम्यता को निहारने के बाद बोला,"इसके निर्माण में मैने रात-दिन एक कर दिये.पिछ्ले दिनों यह नगाड़ा सेट लाया हूं.बिजली से चलने वाला.अरे भाई, आज के जमाने में बजाने की झंझट कौन करे?"फ़िर स्विच ओन करते हुए कहा,लो सुनो!तबीयत बाग-बाग हो जायेगी."बिजली दौड़ते ही नगाड़े,ताशे,घड़ियाल,शंख सभी अपना-अपना रोल अदा करने लगे.पहला हाथ जोड़ कर झूमने लगा.दूसरा मंद-मंद मुस्करा रहा था.जब पहले के भक्ति भाव में कुछ कमी आई तो दूसरे ने बताया,"उधर मैने भी एक मंदिर बनाया है.आज अवसर है, चलो दिखाता हूं."
यह मंदिर और भी अधिक भव्य था.विद्युत नगाड़ा सेट यहां भी था.दूसरा बोला,"इसके साथ ही मैं तुम्हे एक और जोरदार चीज़ दिखाता हूं जो हिन्दुस्तान में अभी तक कहीं नहीं है."
उसने जेब से रिमोट कन्ट्रोल निकाल कर बटन दबाया.देखते ही देखते जो पुजारी निज मंदिर में निश्चल खड़ा था,हरकत में आकर मूर्ति की आरती उतारने लगा.साथ ही फ़िजां में स्वर गूंज उठे,"ॐ जय जगदीश हरे..."
दूसरे भक्त का सिर गर्व से उन्नत हो गया.
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शनिवार, 10 जुलाई 2010

लड़की और नाखून

तुम
अपनी
उँगलियों के नाखून
बढ़ा लो
हो सके तो
तराश कर
नुकीले कर लो
जब भी कोई तुम्हें
अपमानित करे
दसों नाखून
गड़ा दो उसके सीने में
गड़ाए रखो
रक्तरंजित होने तक
ताकि
पता चल जाए उसे
कि
अपमान जन्य पीड़ा
कितनी मर्मान्तक होती है
सब कुछ बर्दाश्त करते रहने की बजाए
शुरुआत के तौर पर
तुम इतना तो कर ही सकती हो
अपनी
उँगलियों के नाखून
लम्बे और पैने

सोमवार, 14 जून 2010

चिड़िया

चिड़िया
पहचानती है अपना दुश्मन
चाहे वह
बिल्ली हो या काला भुजंग .

वह
जिस चोंच से
बच्चों को
चुग्गा चुगाती है
और
किसी लुभावने मौसम में
चिड़े की पीठ गुदगुदाती है
उसी चोंच को
हथियार बनाना जानती है।

आभास होते हुए भी
कि घोंसले में दुबके बच्चे
पंख उगते ही
उड़ जाएँगे फुर्र से
अनजानी दिशाओं में,
आता देख
भयंकर विषधर
चिड़िया टूट पड़ती है उस पर
जान जोखिम में डाल
करती है दर्ज
अंतिम दम तक
अपना प्रतिरोध।

भविष्य में नहीं
वर्तमान में जीती है चिड़िया
इसी लिए हार कर भी
हर बार जीतती है चिड़िया

शनिवार, 5 जून 2010

असर

"चाक़ू घुसा दूंगा ।" तीन साल के पिंटू ने सब्जी काटने का चाकू उठाया और मेहमानों की तरफ आँखे तरेर कर बोला .हालाँकि उसके चेहरे पर बाल सुलभ भोलापन था.सभी मेहमान बच्चे की इस ' कातिलाना ' अदा पर मुस्करा दिए. शर्माजी बोले,"बच्चा बड़ा होनहार है.पूत के पग पालने में दिख रहे हैं." पिंटू के पापा शर्माजी के व्यंग्य को भांप गए.बचाव पक्ष में बोले,"इस टी.वी.ने सबको भ्रष्ट कर दिया है.बच्चों का मनतो फूल की तरह कोमल होता है.और इनके सामने परोसा जाता है सेक्स ,हिंसा.बच्चे जैसा देखेंगे वैसे ही तो बनेंगे."
पापा का भाषण शायद लम्बा चलता मगर इसी समय एक और धमाका हुआ.पिंटू की मम्मी ने पुचकारते हुएकहा,"पिंटू बेटा,यह गन्दी आदत है.चाक़ू मुझे दे दे.ला,तो।"
पिंटू बेटे ने मां को भी कहा ,'चाकू घुसा दूंगा'साथ ही एक भद्दी सी गाली अपने डायलोग में और जोड़ दी.मां को बेटे कीगाली चाकू के वार से भी अधिक मर्मान्तक लगी.
" और यह गाली?क्या यह भी टी.वी.से?"शर्माजी ने फिर
छेड़ा ।
"नहीं, यह अपने बाप से ."पिंटू की मम्मी ने अपने पति की ओर कोप दृष्टि डाली।
पति महोदय को भी क्रोध आ गया.बोले,"मेहमानों के सामने तो अपनी जीभ ठिकाने रखा कर."और लगे हाथोंउनहोंने भी एक वजनदार गाली जड़ दी.

बुधवार, 2 जून 2010

भिखारी

वे खाते पीते घराने के थे।मगर उन्हें लगा कि कुछ करना चाहिये।उन्होंने अपने आस-पास ध्यान से देखा।कुछ कर दिखाने के अधिकांश क्षेत्र भाई लोगों ने पहले से ही हथिया रखे थे।सहसा उनकी नजर फुटपाथ पर भटकते एक भिखारी पर पडी।वे खुशी से उछल पडे,मानो अंधेरे में कोई प्रकाश किरण मिल गई हो।उन्होंने तेजी से कार्य आरंभ कर दिया।देखते ही देखते भिखारियों का एक संगठन खडा हो गया।हडताल, नारेबाजी और जुलूसों की बहार आ गई।उन्होंने भिखमंगो को आबाद करवाने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा दिया।आखिर सरकार का सिंहासन डोला।भिखारियों का एक प्रतिनिधिमंडल सरकार से मिला,जिसके नेता वे खुद थे।नतीजा यह हुआ कि भिखारियों के नाम बस्ती के छोर पर आवासीय भूखंड आबंटित हो गये।उनकी मेहनत रंग लायी।वे अब भिखारियों के रहनुमा थे।और हाँ ,भिखारियों को आबंटित किये गये भूखंडों में से एक भूखंड उनके खुद के नाम भी था।

शुक्रवार, 28 मई 2010

बचा रहे आपस का प्रेम

एक विचार अमूर्त सा
कौंधता है भीतर
कसमसाता है बीज की तरह
हौले हौले
अपना सिर उठाती है कविता
जैसे
फूट रहा हो कोई अंखुआ


धरती को भेद कर;
तना बनेगा
शाखें निकलेंगी
पत्तियां प्रकटेंगी
एक दिन भरा-पूरा
हरा-भरा
पेड.बनेगी कविता ।

कविता पेड. ही तो है
इस झुलसाने वाले समय में
कविता सें इतर
छांव कहां
सुकून कहां
यहीं तो मिल बैठ सकते हैं
सब साथ-साथ
चल पडने को फिर से
तरो ताजा हो कर ।

लकडहारों को
नहीं सुहाती है कविता
नहीं सुहाता है उन्हें
लोगों का मिलना जुलना
प्रेम से बोलना बतियाना
भयभीत करती है उन्हें
कविता के पत्तों की
खडखडाहट
इसीलिये तो वे घूम रहे हैं

हाथ में कुठारी लिये
हिंसक शब्दों के हत्थे वाली ।
हमें
बचाना है कविता को
क्रूर लकडहारों से
ताकि लोग
बैठ सकें बेधडक
इसकी छांव में
ताकि बचा रहे
आपस का प्रेम

सोमवार, 24 मई 2010

अनुगूंज



समय की रेत के नीचे
कहीं गहरे
तुम्हारी यादों की
अन्तर्धारा बह रही है
रेगिस्तान मे सरस्वती की तरह


अन्तस की उपत्यकाओं में
बहुत दूर
तैर रही है
मधुर अनुगूंज
जैसे
लौट लौट आता हो
पहाडों से टकरा कर
तुम्हारे नाम का अनहद नाद


उम्र के इस पडाव पर
हैरान हूं ;
पहाड़ वीरान नहीं हुए हैं
शाख से टूटे फूलों मे
खुशबू शेष है
कबाडी की नजरों से बच गये
शेखर "एक जीवनी" मे
दम साधे दुबकी हुई है
एक प्यारी सी चिट्ठी


वक्त की बेरहम आंधी
सब कुछ उडा सकती है
मगर प्रेम नहीं